Header Ads

पुस्तक मेला और लेखक

 



जब दोस्तों ने पुस्तक मिले जाने का प्रोग्राम बनाया, तो सोचा मैं भी चलता हूं, लुप्त हो रही पुस्तक प्रजाति के दर्शन हो जाएंगे।

देश की अर्थव्यवस्था की तरह ही मेरी जेब की अर्थव्यवस्था भी दयनीय थी
ख़ैर मुझ जैसा गरीब सेक्यूलर जैसे तैसे पैदल ही पुस्तक मेले में पहुंचा
एंट्री टिकट खरीदने के लिए भी पैसे नहीं थे तो दीवार फलांगने का विचार बनाया।

मेले की दीवार देश की समस्याओं और गरीबी की तरह विशाल रूप धरे खड़ी थी,
लेकिन मैं देश का एक ऐसा जिम्मेदार नागरिक था जो ऐसी समस्याओं के थपेड़े रोजाना सहकर अंबुजा सीमेंट बन चुका था।
बस मुझे दीवार पर चढ़ने के लिए एक किक चाहिये थी
फिर सलमान खान को ध्यान करते हुए मैं वहां घास चर रहे सांड के पास पहुंचा, और बोला
खा-खा कर सांड हो रहे हो लेकिन यह ताकत किस काम की जब हम देशवासी तुम्हें बाप ही नहीं बोलते ।
सांड ने नाक से भाप निकालते हुए मेरी तरफ देखा
पहले ही बहुत गुस्से में था शायद आज ही किसी गाय से उसका ब्रेकअप हुआ था।
फिर वह न्यूज़ चैनलों में डिबेट करने वाले सत्ताधारी नेता की तरह मुझ पर झपटा
और मेरी तशरीफ़ पर अपने मस्तक से जबरदस्त स्नेह उडेंल दिया।

अब मुझे किक मिल चुकी थी और मैं दीवार के ऊपर चढ़ चुका था
अब मसला था नीचे कूदने का, लेकिन हम भी फेसबुक कीड़े हैं, दूसरे लोगों की चल रही मैसेज वार में कूदने का अश्लील तजुर्बा है।
"जय जुकरबर्ग" बोला और कूद गया।
मार्क जुकरबर्ग ने मेरी तो लाज रख ली लेकिन यहां मेरी हवाई चप्पल किसी कमजोर पक्ष की भांति टूटी पड़ी थी।
जल्दबाजी में नीचे नहीं देखा, मैं दीवार से सटे हुए खड़े एक गधा प्रजाति के जीव पर गिरा था।
ढैंचू-ढैंचू की करकश ध्वनि से कान के परदे देश के विकास की तरहं फटने को तैयार थे।

मैं बोला गधे भाई माफ करना, लेकिन तुम यहां पुस्तक मेले में क्या कर रहे हो?
गधे ने अपनी रुआंसी सी शक्ल मेरी तरफ घुमाई और बोला भाई पिछले जन्म में मैं भी लेखक था।अपनी लेखनी को जीवन भर अपनी पीठ पर ढोता रहा
शायद तभी ईश्वर ने इस जन्म में मुझे गधा ही बना दिया।
मैंने प्यार से उसकी दुम पर हाथ फेरते हुए तसल्ली दी और कहा, गधे भाई कोई फर्क तो पड़ा नहीं तुम्हारी हालत तो अब भी पिछले जन्म जैसी ही है।
जाओ पुस्तकें देख कर अपने पिछले जन्म की आत्मा का मन बहलाओ, ईश्वर तुम्हारी आत्मा को आडवाणी दे , मेरा मतलब तसल्ली दे।

मैं अपनी टूटी चप्पल को ज़मीन पर घसीटते हुए दो कदम ही आगे बढ़ा था कि,
सामने कुछ भक्तों जैसी शक्ल वाले हाथ में डंडे लाठियां लेकर खड़े थे।
इससे पहले मैं कुछ समझ पाता, सर्द मौसम में मेरी ठंडी तशरीफ़ पर उनकी लाठियों से हीटर के जलते हुए तारों जैसे गर्म और लाल निशान पड़ चुके थे।

मैंने हाथ जोड़कर कहा, भाई छोड़ दो गरीब मां का बेटा हूं...
ओए देशद्रोही कहीं के, गरीब मां का बेटा हमारे देश में सिर्फ एक ही है।

मैंने सुबकते हुए कहा, भाई मैं साहब से भी ज्यादा ग़रीब हूं
बचपन में हम इतने ग़रीब थे कि गेहूं पिसाने को भी मेरे पैसे नहीं होते थे
साबुत गेहूं ही हम पानी से फांक लेते थे।
घर में बिजली नहीं थी, मैं अपनी तशरीफ़ जुगनुओं की तशरीफ़ से रगड़ लेता था
फिर मेरी गरीब मां मुझे लालटेन की तरह खूंटी पर लटका देती थी, और हमारे घर में रोशनी हो जाती थी।
पीने के पानी के लिए भी कुएं में उतर कर मेढकों से कुश्ती में जीतना होता था तब वह पानी देते थे।

ओए तो क्या तू लेखक नहीं है?
नहीं भाई मैं लेखक कहां हूं

अबे साले हुलिए से तो लेखक लग रहा है तभी तो हम तुझे पेले हैं।
तो क्या तुम लोग लेखकों को पीट रहे हो?

अबे हां हम l.p.s. के सदस्य हैं, बोले तो "लेखक पेलू संघ"
यह घोंचू लेखक इतना तपाते हैं, शरीर के सारे छिद्रों से धुआं निकलता है बे
दिमाग का दही कर देते हैं
इनकी लेखनी पढ़कर आंखों में बवासीर हो जाती है।
ससुरे एक बात को समझाने के लिए पूरी किताब रगड़ देवे हैं।
मेले में ढूंढ ढूंढ कर सेवा कर रहे हैं,अब तक छप्पन को पेल चुके हैं।
और फेसबुक के बुड़बक लेखकों को तो हम चुन-चुन कर एक्स्ट्रा बेनिफिट दे रहे हैं "बाय टू डंडा गेट वन फ्री"
चल तू गरीब आदमी निकल इधर से, वरना तुझे हमारा दूसरा दल धर लेगा।
अब मेरे सूजे हुए विकास में इतना दम नहीं था जो चार कदम भी चल सके
मैंने भीगी पलकों से अभी तक दीवार के पास खड़े पूर्व जन्म के लेखक की और दयनीय दृष्टि से देखा।

वह मेरी व्यथा समझकर बोला, आजा मेरी पीठ पर चढ़ कर वापस दीवार फांद ले
वैसे भी इस देश का क्रांतिकारी विकास हमारे जैसों की पीठ पर लदकर ही आगे बढ़ रहा है।


Written by Nadeem Hindustani 


No comments